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श्रमणसस्कृति और तप
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अपितु ध्येय के माधुर्य का अनुभव हो जाने पर और उसमें गहरी लगन लग जाने पर देहदमन भी आनन्द की वृद्धि करने वाला होता है । __ जैन संस्कृति ने तप का मुख्य ध्येय आत्माभ्युदय स्वीकार किया है। प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर के शब्दों में “तप वह है जो अष्ट प्रकार की कर्म ग्रन्थियों को तपाता है, उन्हें भस्म करता है।९८ भगवान् महावीर ने तप का फल व्युदान बताया है ।९९ व्युदान का अर्थ संचित कर्म-मल को साफ कर देना है। एक प्राचार्य ने तप का अर्थ इच्छाओं को रोकना किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-जैसे सदोष स्वर्ण, प्रदीप्त अग्नि द्वारा शुद्ध होता है, वैसे ही प्रात्मा तप अग्नि से विशुद्ध होता है। बाह्य और प्राभ्यन्तर तपस्याग्नि के प्रज्वलित होने पर यमी दुर्जर कर्मों को तत्क्षण भस्म कर देता है । ०१
६७. सदुपायः प्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धि रेव तपस्विनाम् ।।
-ज्ञानसार, तपाष्टक ६८. तवो णाम तावयति अढविहं, कम्मगंठि नासेतित्ति वुत्तं भवइ ।
-वशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १५ ६६. तवेणं भंते जीवे कि जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ ।।
-उत्तराध्ययन अ०२६।२७ (ख) तवे वोदाणफले ।
-भगवती,शतक २। उद्दे० ५ १००. इच्छानिरुन्धनम् तपः ।
सदोषर्माप दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा, तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति । दीप्यमाने तपोवह्नौ, बाह्य चाभ्यन्तरेऽपि च, यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ।
-नवतत्त्वसाहित्य संग्रहः श्री हेमचन्द्र सूरिरचित सप्ततत्त्व प्रकरण गा० १२६।१३२
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