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धर्म और दर्शन
तब भी वे ऊकडू और ध्यानान्तरिका में कि वे तप से कभी भी
जब भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था, आसन से बैठे थे। दो दिन का उपवास था । वर्तमान थे । उनके जीवनदर्शन से स्पष्ट है ऊबे नहीं । इस उग्र तपश्चरण की बदौलत उनमें असाधारण सहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी । यही कारण है कि घोर से घोर अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग एवं परीषह उन्हें अपने ध्येय से विचलित नहीं कर सके । ९५ भगवान् ने अत्यन्त वीरता के साथ उन्हें सहन करके एक आदर्श उपस्थित कर दिया ।
उपाध्याय श्री यशोविजय जी कहते हैं - " जैसे धनार्थी मनुष्य को शीत, ताप, क्षुधा आदि दुस्सह प्रतीत नहीं होता, वैसे ही तत्त्व ज्ञान के अर्थी साधक को भी किसी प्रकार का देहकष्ट दुःस्सह नहीं होता । "
पडिमा भद्द महाभद्द सव्वओभद्द पढमिया चउरो । अवीसाऽऽदे बहुलिय तह उज्झिया दिव्वा ||
९२. जंभिय बहि उजुवालिय तीरवियावत्त सामसाल अहे । छक्कुडुयस्स उ उप्पन्न केवलं नाणं ॥
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६.
- श्रावश्यक नियुक्ति गा० ४६६, मलय० वृत्ति २०८
६४.
६३. भारतरियाए वट्टमाणस्स । - श्रावश्यक नियुक्ति ५२४ बृ० प० २६५ धूली पिवलिआओ उद्दसा चेब तह य उण्होला । विच्छुअ नउला सप्पा य मूसगा चेव अट्ठमया ॥ हत्थी हत्थिणियाओ पिसाबए घोररूंव वग्घो य । थेरो थेरी सूओ आगच्छइ पक्कणो अ तहा ॥ खरवाय कलंकलिया, कालचक्कं तहेव य । पाभाइयमुवसग्गो, बीसइमे होति अगुलोमे ॥ सामाणियदेविद्धि देवो दाएइ सो विमाणगओ । भइ वरेह महरिसि ! निष्पत्ती सग्गमोक्खाणं ॥
- श्रावश्यक नियुक्ति गा० ५०२ - ५०५
(ख) त्रिषष्ठि ० १०।४।१८६ - २८१
- श्रावश्यक नियुक्ति गा० ५२५
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आचारांग श्र० २, अ० १५, सू० १०१८ धनार्थिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्सहम् । तथा भव - विरक्तानां तत्व-ज्ञानार्थिनामपि ॥
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-ज्ञानसार-तपाष्टक
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