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धर्म और दर्शन
प्रकृति-संक्रमण की तरह बन्धकालीन रस में भी परिवर्तन हो सकता है । मन्द रस वाला कर्म, बाद में तीब्र रस वाले कर्म के रूप में बदल सकता है और तीन रस, मन्द रस के रूप में हो सकता है।
गणधर गौतम ने महावीर से पछा-भगवन् ! अन्य यूथिक इस प्रकार कहते हैं कि 'सब जीव एवंभूत-वेदना (जैसा कर्म बाँधा है वैसे ही) भोगते हैं- यह किस प्रकार है ? महावीर ने कहा-गौतम ! अन्य यूथिक जो इस प्रकार कहते हैं वह मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता है-कि कई जीव एवं भूत वेदना भोगते हैं और कई अन्-एवंभूत वेदना भी भोगते हैं । जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं वे एवंभूत वेदना भोगते हैं और जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना भोगते हैं, वे अन्-एवंभूत वेदना भोगते हैं ।१८८ __ स्थानाङ्ग में चतुर्भङ्गी है-(१) एक कर्म शुभ है और उसका विपाक भी शुभ है, (२) एक कर्म शुभ है किन्तु विपाक अशुभ है, (३) एक कर्म अशुभ है पर उसका विपाक शुभ है, (४) एक कर्म अशुभ है और उसका विपाक भी अशुभ है ।१८९
विद्यते,..."उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्यायुष्कस्य च"..."
-तत्त्वार्थ सूत्र ८।२२ भाष्य (ख) अनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां
मूलप्रकृतिनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति । आयुदर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुमुखेन निर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन ।
-तत्त्वार्थ : ८२२ सर्वार्थ सिद्धि (ग) तत्त्वार्थ सूत्र० पं० सूखलाल जी हिन्दी द्वि० सं० पृ० २६३
मोत्तणं आउयं खलु, दंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंकमो भज्जो ।
-विशेषावश्यक भाष्य-गा० १९३८ १८८. भगवती २५ १८६. स्थानाङ ४:४।३१२
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