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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
जिज्ञासा हो सकती है कि इसका मूल कारण क्या है ? जैन कर्मसाहित्य समाधान करता है कि कर्म को विभिन्न अवस्थाए हैं। मुख्य रूप से उन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त कर सकते हैं१९०--(१) बन्ध, (२) सत्ता, (३) उद्वर्तन-उत्कर्ष, (४) अपवर्तन-अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८, उपशमन, (९) निधत्ति, (१०) निकाचित और (११) अबाधा-काल ।
(१) बन्ध :-- प्रात्मा के साथ कर्म परमाणुत्रों का सम्बन्ध होना, क्षीर-नीरवत् एकमेक हो जाना बन्ध है । ११ बन्ध के चार प्रकार हैं । इनका वर्णन पूर्व किया जा चुका है।
स्थानाङ्ग की तरह बौद्ध साहित्य में उल्लेख है :(१) कितने ही कर्म ऐसे होते हैं जो कृष्ण होते हैं और कृष्ण-विपाकी
होते हैं। (२) कितने ही कर्म ऐसे होते हैं जो शुक्ल होते हैं और शुल्क विपाकी
होते हैं। (३) कितने ही कर्म कृष्ण-शुक्ल मिश्र होते हैं और वैसे ही विपाक
वाले होते हैं। (४) कितने ही कर्म अकृष्ण-शुक्ल होते हैं और अकृष्ण-शुक्ल विपाकी होते हैं।
-अंगुत्तर विकाय ४।२३२-२३३ १६०. द्रव्य संग्रह टीका गा० ३३
(ख) आत्म मीमांसा-पं० दलसुख मालवणिया पृ० १२८ (ग) जैन दर्शन
(घ) श्री अमर भारती वर्ष १ १६१. आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र १४ सर्वार्थ सिद्धि (ख) बंश्च-जीवकर्मणो : संश्लेषः
-उत्तराध्ययन २८।१४ नेमिचन्द्रीय टीका (ग) बंधनं बन्धः सकषायत्वात् जीवः कर्मणो-योग्यान् पुद्गलान् आदत्त यः स बन्धः इति भावः ।
- स्थानाङ्ग १।४।६ टीका
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