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धर्म और दर्शन
( २ ) सत्ता - प्राबद्ध कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से पृथक नहीं हो जाते तब तक वे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं, इसे जैन दार्शनिकों ने सत्ता कहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो बन्ध होने और फलोदय होने के बीच कर्म ग्रात्मा में विद्यमान रहते हैं, वह सत्ता है । उस समय कर्मों का अस्तित्व रहता है, पर वे फल प्रदान नहीं करते ।
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(३) उद्वर्तन - उत्कर्ष - आत्मा के साथ आबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग बन्ध तत्कालीन परिणामों में प्रवहमान कषाय की तीव्र एवं मन्दधारा के अनुरूप होता है । उसके पश्चात् की स्थिति - विशेष अथवा भाव विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तन उत्कर्ष है ।
(४) अपवर्तन - अपकर्ष - पूर्व बद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में नूतन कर्म-बन्ध करते समय न्यून कर देना अपवर्तनअपकर्ष है । इस प्रकार उद्वर्तन उत्कर्ष से विपरीत अपवर्तनअपकर्ष है ।
उद्वर्तन और अपवर्तन की प्रस्तुत विचारधारा यह प्रतिपादित करती है कि आबद्ध कर्म की स्थिति और इसका अनुभाग एकान्ततः
(घ) सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । यदादत्त े स बन्धः स्याज्जीवास्वातन्त्र्यकारणम् ॥ नवतत्त्व साहित्य संग्रहः; सप्ततत्त्वप्रकरण गा० १३३ (ङ) बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो, कम्मादपसरणं अणोपवेस इदरो । - द्रव्यसंग्रह - २१३२, नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती (च) द्रव्यतो बन्धो निगडादिभिर्भािवतः कर्म्मणा ।
-ठाणाङ्ग ११४१६ टीका
(छ) ननु बन्धो जीवकर्मणोः संयोगोऽभिप्रेतः
(ज) मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनः क्षीरनीरवद्वन्ह्ययःपिण्डवद्वान्योन्यानुगमाभेदात्मकः सम्बन्धो बंधः ।
-नवतत्त्व साहित्य संग्रहः वृत्यादिसमेत नवतत्त्व प्रकरणम् गाथा ७१ की प्राकृत श्रवचूर्णि
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