________________
कर्मवाद : पर्यवेक्षण
नियत नहीं है, उसमें अध्यवसायों की प्रबलता से परिवर्तन भी हो सकता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रारणी अशुभ कर्म का बंध करके शुभ कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । उसका असर पूर्व बद्ध अशुभ कर्मों पर पड़ता है जिससे उस लम्बी कालमर्यादा और विपाक शक्ति में न्यूनता हो जाती है । इसी प्रकार पूर्व में श्रेष्ठ कार्य करके पश्चात् निकृष्ठ कार्य करने से पूर्वबद्ध पुण्य कर्म की स्थिति एवं अनुभाग में मन्दता श्रा जाती है । सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढ़ाने का प्राधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष प्राधत है ।
(५) संक्रमण - एक प्रकार के कर्म परमाणुओंों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म-परमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परि वर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं । इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएँ हैं, जिनका उल्लेख पूर्व किया जा चुका है । संक्रमण के चार प्रकार हैं - ( १ ) प्रकृति - संक्रमण, (२) स्थिति-संक्रमण, (३) अनुभाव - संक्रमण, (४) प्रदेश संक्रमण । १९२
(५) उदय - कर्म का फलदान उदय है । यदि कर्म अपना फल देकर निजीर्ण हो जाय तो फलोदय है और फल को दिये बिना हो नष्ट हो जाय तो प्रदेशोदय है ।
4
(७) उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है । जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से ग्राम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना से आबद्ध कर्म का नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है । सामान्यतः यह नियम है कि जिस कर्म का उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है।
६७
(८) उपशमन - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है । अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीररणा संभव नहीं किन्तु उवर्तन, अपवर्तन, और संक्रमण की संभावना हो वह उपशमन है । जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर
१६२. स्थानाङ्ग ४॥२१६
10
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org