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धर्म और दर्शन
सके । वैसे ही उपशमन-क्रिया से कर्म को इस प्रकार दबा देना जिससे वह अपना फल नहीं दे सके। किन्तु जैसे प्रावरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं, वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं।
(६) निधत्ति--जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण न हो सके 'किन्तु उद्वर्तन-अप पर्तन की संभावना हो वह निधत्ति है ।९३ यह भी चार प्रकार९४ वा है। (१) प्रकृति निधत्त (२) स्थिति निधत्त (३) अनुभाव निधत्त (४) प्रदेश निधत्त ।
(१०) निकाचित्त-जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित है। अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है प्रायः उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती। वह भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश रूप में चार प्रकार का है ।१९५
(११) अबाधाकाल-कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक किसी प्रकार फल न देने की अवस्था का नाम अबाध-अवस्था है । अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितनेसागरोपम की है उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधा काल होता है । जैसे ज्ञानावरणीय की स्थिति तीन कोटाकोटि सागरोपम की है तो अवाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है । भगवती में अष्टकर्म प्रकृतियों का अबाधा काल बताया है१९६ और प्रज्ञापना१९७ में अष्टकर्म प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों का भी अबाधाकाल उल्लिखित है, विशेष जिज्ञासुओं को मूल ग्रन्थ देखने चाहिए । ___ जैन कर्म साहित्य में इन कर्मों की अवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का जैसा विश्लेषण है वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृग्गोचर नहीं
१९३. कर्म प्रकृति गा० २ १६४. स्थानांग ४।२६६ १६५. स्थानांग ४।२६६ १६६. भगवती २।३ १६७. प्रज्ञापना २३।२।२१-२६
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