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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण होता। हाँ, योग-दर्शन में नियतविपाकी, अनियतविपाकी; और आवापगमन के रूप में कर्म की विविध दशा का उल्लेख किया है। नियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो नियत समय पर अपना फल प्रदान कर नष्ट हो जाता है। अनियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो कर्म बिना फल दिये ही प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं । और पावापगमन कर्म का अर्थ है-एक कर्म का दूसरे में मिल जाना ।१९८ योगदर्शन की इन त्रिविध अवस्थामों की तुलना क्रमशः निकाचित, प्रदेशोदय, और संक्रमण के साथ की जा सकती है। कर्म बंधन से मुक्ति का उपाय : ___ भारतीय कर्म साहित्य में जैसे कर्म बंध और उनके कारणों का विस्तार से निरूपण है उसी प्रकार उन कर्मों से मुक्त होने का साधन भी प्रतिपादित किया गया है । प्रात्मा नित नये कर्मो का बन्धन करता है, पुराने कर्मों को भोग कर नष्ट करता है। ऐसा कोई समय नहीं है जिस समय वह कर्म नहीं बाँधता हो । तब प्रश्न हो सकता है कि वह कर्मों से मुक्त कैसे होगा? उत्तर है-तप और साधना मे । जैसे खान में सोना और मिट्टी दोनों एकमेक होते हैं, किन्तु ताप आदि के द्वारा जैसे उन्हें अलग-अलग कर दिया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्मो को भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से पृथक किया जाता है । जैनदर्शन ने एकान्त रूप से न्याय-वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, महायान (बौद्ध) की तरह ज्ञान को प्रमुखता नहीं दी है और न एकान्त रूप से मीमांसक दर्शन की तरह क्रिया-काण्ड पर ही बल दिया है। किन्तु ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय को ही मोक्ष मार्ग माना है । १९९ चारित्रयुक्त अल्पज्ञान भी मोक्ष का हेतु है और विराट् ज्ञान भी, यदि चारित्र रहित है तो, मोक्ष का कारण नहीं १६८. योगदर्शन, व्यास भाष्य २०१३ १६६. सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टन्तो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तव-संजममइए, जोगे न चएइ वो? जे । -आवश्यक नियुक्ति गा० ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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