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धर्म और दर्शन है ।२०° प्राचार्य भद्रबाहु के शब्दों में चारित्रहीन श्रु तवेत्ता चन्दन का भार ढोने वाले गधे के समान है ।२०१ सारांश यह है कि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का हेतु है। जहाँ ये दोनों सम्यक् होते हैं वहाँ सम्यग् दर्शन अवश्य होता है, अतः आचार्यों ने तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है । २०२ आगमों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्षमार्ग रूप में स्वीकार किया है ।२०3 किन्तु यह शाब्दिक अन्तर है, वास्तविक नहीं । कहीं पर दर्शन को ज्ञान के अन्तर्गत गिनकर ज्ञान
और क्रिया को मोक्ष का कारण बताया है, और कहीं पर तप को चारित्र से गर्भित कर ज्ञान, दर्शन, और चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है।
बद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए सर्व प्रथम साधक संवर की साधना
२००. अप्पंपि सुयमहीयं, पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । । एक्कोऽवि जह पईवो, सचक्खुयस्स पयासेइ ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० ६६ २०१. जहा खरो चन्दणभारवाही,
__ भारस्सभागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए ।
-प्रावश्यक नियुक्ति गा० १०० २०२. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र १११ (ख) नाणं पयासयं सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ।
आवश्यक नियुक्ति गा० १०३ २०३. नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गु त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। नाणं च दंसरणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गइ ।
-उत्तराध्ययन प्र० २८ गा० २-३
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