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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
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से नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है । २०४ आचार्य श्री हेमचन्द्र के शब्दों में-'जिस तरह चौराहे पर स्थित बह-द्वारवाले गृह में द्वार बंद न न होने पर निश्चय ही रज प्रविष्ट होती है और चिकनाई के योग से वहीं चिपक जाती है, और यदि द्वार बन्द हो तो रज प्रविष्ट नहीं होती और न चिपकती है, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता।" ___"जिस तरह तालाब में सर्वद्वारों से जल का प्रवेश होता है, पर द्वारों को प्रतिरुद्ध कर देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता है।"
"जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रोक देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता ।२५
२०४. शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप प्रास्रवः । आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः ।
-तत्वार्थ० ११४ सर्वार्थ सिद्धि २०५. यथा चतुष्पथस्थस्य, बहुद्वारस्य वेश्मनः ।
अनावृतेषु द्वारेषु, रजः प्रविशति ध्र वम् ॥ प्रविष्टं स्नेहयोगाच्च, तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन च बध्येत, द्वारेषु ऑगतेषु च ॥ यथा वा सरसि क्वापि, सर्वैद्वारैविशेज्जलम् । तेषु तु प्रतिरुद्ध षु, प्रविशेन्न मनागपि ।। यथा वा यानपात्रस्य, मध्ये रन्ध्रौविशेज्जलम् । कृते रुन्ध्रपिधाने तु, न स्तोकमपि तद्विशेत् ।। योगादिष्वास्रवद्वारेष्वेवं रुद्ध षु सर्वतः । कर्मद्रव्यप्रवेशो न, जीवे संवरशालिनि ।।
-नवतत्त्व साहित्य संग्रह : श्री हेमचन्द्र सूरिकृत
सप्ततत्व प्रकरणम् ११८-१२२
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