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धर्म और दर्शन
इस प्रकार साधक संवर से प्रागन्तुक कर्मों को रोकने के साथसाथ निर्जरा की साधना से पूर्वसंचित कर्मों को क्षय करता है ।२०६ कर्मों का एक देश से आत्मा से छूटना निर्जरा है२०७ और जब सम्पूर्ण कर्मों को सर्वतोभावेन नष्ट कर देता हैं तब अात्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है ।२०८ जब आत्मा एक बार पूर्ण रूप से कर्मों से विमुक्त हो जाता है तो फिर वह कभी कर्म बद्ध नहीं होता। क्योंकि उस अवस्था में कर्म बन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे बीज के जल जाने पर उससे पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही कर्म रूपी बीज के सम्पर्ण जल जाने पर संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती ।२०९ इससे स्पष्ट है कि जो आत्मा कर्मों से बंधा हो, वह एक दिन उनसे मुक्त भी हो सकता है । अपूर्व देन : __ कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की और विशेष रूप से जैन दर्शन की विश्व को एक अपर्व और अलौकिक देन है। इस सिद्धान्त ने मानव को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में दीपक की लौ की तरह नहीं अपितु ध्रव की तरह अटल रहने की प्रेरणा दी है। जन-जन
२०६. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥
-उत्तरा० २८।३५ २०७. एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। ।
--तत्वार्थ १।४ सर्वार्थ सिद्धि २०८. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ।
-तत्वार्थ० १०३ (ख) मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न नामान्तरमेव च । अज्ञान- हृदय ग्रन्थिनाशो, मोक्ष इति स्मृतः ।।
-शिवगीता१३-३२ २०६. दग्धे बाजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।।
-तत्वार्थ भाष्यगत अन्तिम कारिका ८
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