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धर्म और दर्शन
ढंग से करता है और जिससे वादी और प्रतिवादी दोनों को ही न्याय मिलता है पूर्व कालीन महान् दार्शनिक समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक हरिभद्र आदि ने अनेकान्तदृष्टि का अवलम्बन करके ही सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्त्व अनित्यत्त्व, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वत, भाग्य, पुरुषार्थ आदि विरोधी वादों का तर्क संगत समन्वय किया और विचार की एक शुद्ध, व्यापक, बुद्धिसंगत और निष्पक्ष दृष्टि प्रदान की। इस दृष्टि से देखने पर खंडित एवं एकांगी वस्तु के स्थान पर हमें सर्वागीण परिपूर्ण वस्तु दृष्टिगोचर होने लगती है। अनेकान्त दृष्टि विरोध का शमन करने वाली है, इसी कारण वह पूर्ण सत्य की ओर ले जाती है।
अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैनदार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है । वस्तुतः वह समस्त दार्शनिकों का जीवन है, प्राण है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा है-एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नामनिशान नहीं रहता । दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियां अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती हैं जैसे विभिन्न दिशाओं से आने वाली सरिताएं सागर में एकाकार हो जाती है।
प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में कहा जा सकता है-'सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता। वह एकनयात्मक दर्शनों को इस , प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है । अनेकान्त वादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है-उसका सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो। मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद
१०. उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, अविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ।
-सिद्धसेन
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