________________
स्याहार
१०७
इसी प्रकार जब आत्मा के परिमारण के विषय में विचार किया गया तो किसी ने उसे आकाश को भाँति सर्वव्यापी माना, किसी ने अरण परिमाण, किसी ने अंगूष्ठ परिमाण तो किसी ने श्यामाक के बराबर कहा।
एक कहता है-चेतना भूतों से उत्पन्न होती या व्यक्त होती है। दूसरे का कथन है कि चेतना आत्मा का धर्म नहीं, जड़ प्रकृति से प्रादुर्भूत तत्त्व है। तीसरा दर्शन विधान करता है कि चेतना अात्मा का गुण तो नहीं है, किन्तु समवाय संबंध से आत्मा में रहती है। • इस प्रकार जब आत्मा जैसे तत्त्व के विषय में भी ये विचारक किसी एक तथ्य पर नहीं टिक पाते तो अन्य पदार्थों के विषय में क्या कहा जाय।
दर्शनों और दार्शनिकों की बात जाने दीजिए और अपनी ही विचारों को जरा गहराई से देखिए। जब हमारा दृष्टिकोण अभे रा होता है तो प्रत्येक प्राणी में चेतना की दृष्टि से समानता प्रतीत होता है, और चेतना से आगे बढ़ कर जब सता को प्राधार बताते हैं तो चेतन और अचेतन सभी विद्यमान पदार्थ सत्स्वरूप में एकाकार भासित होने लगते हैं। इसके विपरीत, जब हमारे दृष्टिकोण में भेद की प्रधानता होती है तो अधिक से अधिक सदृश प्रतीत हो रहे दो पदार्थों में भी भिन्नता प्रतीत हुए बिना नहीं रहती। इस प्रकार हम स्वयं अपने ही विरोधी विचारों में खो जाते हैं और सोचने लगते हैं- सत्य अज्ञय हैं, उसका पता लगना असम्भव है। इस निराशापूर्ण भावना ने ही अज्ञेयवादी दर्शन को जन्म दिया है।
अनेकान्तवाद का आलोक हमें निराशा के इस अन्धकार से बचाता है । वह हमें एक ऐसी विचारधारा की ओर ले जाता है, जहाँ सभी प्रकार के विरोधों का उपशमन हो जाता है। अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं, उलझनों और भ्रमणाओं के निवारण का समाधान प्रस्तुत करता है। अपेक्षा विशेष से पिता को पूत्र, पत्र को भी पिता, छोटे को भी बड़ा, बड़े को भी छोटा यदि कहा जा सकता है तो अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर ही। अनेकान्तवाद वह न्यायाधीश है जो परस्पर विरोधी दावेदारों का फैसला बड़े ही सुन्दर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org