________________
१०६
धर्म और दर्शन
प्रतिपादित करने वाला सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है । इस प्रकार स्याद्वाद त है और अनेकान्त वस्तुगत तत्त्व है ।
दोनों ही वस्तुतत्त्व के प्रकाशक हैं । वस्तुका साक्षात् ज्ञान कराता है श्रसाक्षात् ज्ञान कराता है ।
आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट किया है - स्याद्वाद और केवलज्ञान भेद इतना ही है कि केवलज्ञान जब कि स्याद्वाद श्रुत होने से
७
समन्वय का श्रेष्ठ मार्ग :
जगत् की विभिन्न दार्शनिक परम्परानों में जो परस्पर विरुद्ध विचार प्रस्तुत किए हैं, उनका अध्ययन करने पर जिज्ञासु को घोर निराशा होना स्वाभाविक है। उन विचरों में एक पूर्व की ओर जाता है तो दूसरा पश्चिम की ओर। ऐसी स्थिति में जिज्ञासु अपनी आस्था स्थिर करे तो किस पर ? किसे वास्तविक और किसे अवास्तविक स्वीकार करे ? आखिर ये दार्शनिक किसी भी विषय में य का होते । श्रात्मा जैसे मूलतत्त्व के सम्बन्ध में भी इनके हरिणा म आकाश-पाताल का अन्तर है । चार्वाकदर्शन ग्रात्मतत्त्व की सत्ता को ही अस्वीकार करता है । जो दर्शन उसे स्वीकार करते हैं उनमें भी एकमत नहीं । सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थनित्य एवं अविकारी कहता है । उसके मन्तव्य के अनुसार आत्मा प्रकर्त्ता है, निर्गुण है । नैयायिक-वैशेषिकों ने परिवर्तन तो माना, पर उसे गुणों तक ही सीमित रखखा । मीमांसक अवस्थाओं में परिवर्तन मान कर भी द्रव्य को नित्य मानते हैं । बुद्ध के समक्ष जब श्रात्मा विषयक प्रश्न उपस्थित किया गया तो उन्होंने उसे अव्याकृत प्रश्न कह कर मौन धारण कर लिया ।
६. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः ।
स्याद्वादकेवलज्ञाने
वस्तुतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यत्तमं भवेत् ॥
७.
८.
ε.
अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम् । मज्झिमनिकाय, चूल मालुक्य सुत्त ६३ ।
Jain Education International
- लघीयस्त्रय ०६२ कलंक
- प्रप्तमीमांसा, १०५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org