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________________ स्याद्वाद १०५ जैनाचार्यों ने स्याद्वाद को ही अपने चिन्तन का आधार बनाया है। चिन्तन की यह पद्धति हमें एकांगी विचार और निश्चय से बचाकर सर्वाङ्गीण विचार के लिए प्रेरित करती है और इसका परिणाम यह होता है कि हम सत्य के प्रत्येक पहलू से परिचित हो जाते हैं। वस्तुतः समग्र सत्य को समझने के लिए स्याद्वाद दृष्टि ही एकमात्र साधन है । स्याद्वाद पद्धति को अपनाए बिना विराट सत्य का साक्षात्कार होना सम्भव नहीं। जो विचारक वस्तु के अनेक धर्मों को अपनी दृष्टि से ओझल करके किसी एक ही धर्म को पकड़कर अटक जाता हैं वह सत्य को नहीं पा सकता । इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है—'स्यात्' शब्द सत्य का प्रतीक है । और इसी कारण जेनाचार्यो का यह कथन है कि जहाँ कहीं स्यात् शब्द का प्रयोग न दृष्टिगोचर हो वहाँ भी उसे अनुस्यूत ही समझ लेना चाहिए। ___ स्याद्वाद-दृष्टि विविध अपेक्षानों से एक ही वस्तु में नित्यता, अनित्यता, सदृशता, विसदृशता, वाच्यता, अवाच्यता, सत्ता, असत्ता आदि परस्पर विरुद्ध-से प्रतीत होने वाले धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका सुन्दर एवं बुद्धिसंगत समन्वय प्रस्तुत करती है। साधारणतया स्याद्वाद को ही अनेकान्तवाद कह दिया जाता है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि दोनों में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध है । अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा द्वारा २. एयन्ते निरवेक्खे नो सिज्झइ विविहयावगं दव्वं । ३. स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः । ४. सोऽप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । -लघीयस्त्रय, श्लो० २२ ५. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव ।। -अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका, श्लोक २५ प्राचार्य हेमचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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