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________________ स्याद्वाद १०६ का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं ।११ हरिभद्र सूरि ने लिखा है-'आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को उसी जगह खींचतान करके लेजाना चाहता है जहाँ पहले से उसकी बुद्धि जमी हुई है, मगर पक्षपात से २ हिा मध्यस्थ पुरुष अपनी बुद्धि का निवेश वहीं करता है जहाँ युक्तियाँ उसे ले जाती है ।१२ अनेकान्त दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति-सिद्ध वस्तुस्वरूप को ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करना चाहिए । बुद्धि का. यही वास्तविक फल है । जो एकान्त के प्रति आग्रहशील है और दूसरे सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है, वह तत्त्व रूपी नवनीत नहीं पा सकता।" ___“गोपी नवनीत तभी पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है । अगर वह एक ही छोर को खींचे और दूसरे को ढीला न छोड़े तो नवनीत नहीं निकल सकता। इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान रूप से विकसित किया जाता है, तभी सत्य का अमृत हाथ लगता है।"13 अतएव एकान्त के गंदले पोखर से दूर रहकर ११. यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्याऽदनेकान्तवादस्या क्व न्यूनाधिकशेमुषो ।। तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोदेशा विशेषेण, यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्ध यति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद् बालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्यकपदज्ञानमपि प्रमा। शास्त्रकोटिवृथवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।। -ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजय १२. आग्रही वत निनीषति युक्ति, यत्र तत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिः , यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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