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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
(३) भोग-अन्त राय कर्म-जो वस्तु एक बार भोगी जाय वह भोग है । जैसे खाद्य-पेय आदि । इस कर्म के उदय से भोग्य पदार्थ सामने होने पर भी भोगे नहीं जा सकते । जैसे पेट की खराबी के कारण सरस भोजन तैयार होने पर भी खाया नहीं जा सकता।
(४) उपभोग-अन्तराय कर्म-जो वस्तु वार-बार भोगी जा सके वह उपभोग है। जैसे-भवन, वस्त्र, आभूषण आदि । इस कर्म के उदय से उपभोग्य पदार्थ होने पर भी भोगे नहीं जा सकते।
(५) वीर्य अन्तराय कर्म-जिसके उदय से सामर्थ्य का प्रयोग नहीं किया जा सके और जिसके प्रभाव से जीव के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम क्षीण होते हैं ।
यह अन्तराय कर्म दो प्रकार का है :
(१) प्रत्युत्पन्नविनाशी अन्त राय कर्म-जिसके उदय से प्राप्त वस्तु का विनाश होता है।
(२) पिहित-आगामिपथ अन्तराय कर्म-भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति का अवरोधक । १७६ ___ अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की है । ७७
जैसे तूबा स्वभावतः जल की सतह पर तैरता है; उसी प्रकार जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगतिशील है, पर मृत्तिकालिप्त तूबा जैसे जल में नीचे जाता है, वैसे ही कर्मों से बद्ध आत्मा की अधोगति होती है। वह भी नीचे जाती है ।१८ कर्म बन्ध :
पूर्व में यह बताया जा चुका है कि इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ कर्मवर्गणा के पुद्गल न हों। प्राणी मानसिक, वाचिक १७६. अन्तराइए कम्मे दुविहे पं० तं० पडुप्पन्नविणासिए चेव पिहितआगामिपहं ।
-स्थानाङ्ग २।४।१०५ १७७. उत्तराध्यन ३३॥१६ १७८. ज्ञातासूत्र
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