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________________ ६० और कायिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के है, अतः वह कर्मयोग्य पुद्गलों को सर्व है | आगमों में स्पष्ट निर्देश है कि एकेन्द्रिय छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं, व्याघात होने पर कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच दिशाओं से ग्रहण करते हैं, किन्तु शेष जीव नियम से सर्व दिशाओं से पुद्गल ग्रहण करते हैं । १७९ किन्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में यह मर्यादा है कि जिस क्षेत्र में वह स्थित है उसी क्षेत्र में स्थित कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । अन्यत्र स्थित पुद्गलों को नहीं । १° यह भी विस्मरण नहीं होना चाहिये कि जितनी योगों की चंचलता में तरतमता होगी उसी के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करेगा । योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुत्रों की संख्या भी कम होगी । श्रागमिक भाषा में इसे ही प्रदेश बंध कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के प्रसंख्यात प्रदेश होते हैं, उन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मप्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश बन्ध है । अर्थात् जीव के प्रदेशों और कर्म पुदुगलों के प्रदेशों का परस्पर बद्ध होजाना प्रदेश बन्ध हैं । १८१ १७६. सम्बजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि पएसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥ (ख) भगवती शतक १७ उद्द े० ४ O धर्म और दर्शन उत्ताप से उत्तप्त होता दिशाओं से ग्रहण करता जीव व्याघात न होने पर (ख) प्रदेशो दलसंचयः । (ग) नतत्त्वसाहित्य संग्रह : अव० गा० ७१ की वृत्ति - १८०. गेण्हति तज्जोगं चिय रेणु पुरिसो जहा कयब्भंगो । एग तो गाढं जीवो पहं ॥ Jain Education International • उत्तराध्ययन ३३।१८ - विशेषावश्यक भाष्य गा० १९४१ पृ० ११७ द्वि० भा० ( ख ) एगपए सोगाढं सव्वपएसेहि कम्मुणो जोगं । जहुत्त हेउ साइयमणाइयं बंध वावि ॥ - पंचसंग्रह - २८४ १८५१. प्रदेशाः कर्मपुद्गलाः जीवप्रदेशेष्वोतप्रोताः, तद्रूपं कर्म प्रदेश कर्म । - भगवती १/४/४० वृत्ति वृत्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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