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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण गणधर गौतम ने महावीर से पूछा-भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य- एक दूसरे से बद्ध, एक दूसरे से स्पृष्ट, एक दूसरे में अवगाढ, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं ? उत्तर में महावीर ने कहा-हे गौतम, हाँ, रहते हैं। हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? हे गौतम ! जैसे एक ह्रद हो, जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब, जल से ऊपर उठा हुआ और भरे हुए घड़े की तरह स्थित । अब यदि कोई पुरुष उस ह्रद में एक बड़ी, सौ आस्रव-द्वार वाली, सौ छिद्र वाली नाव छोड़े तो हे गौतम ! वह नाव उन प्रास्रव-द्वारों-छिद्रों द्वारा भरती-भरती जल से पर्ण ऊपर तक भरी हुई, बढ़ते हुए जल से ढंकी हुई होकर, भरे घड़े की तरह होगी या नहीं? हे भगवन् ! होगी। हे गौतम ! उसी हेतु से मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ़ और स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और परस्पर एकमेक होकर रहते हैं । १८२ यही प्रात्म-प्रदेशों और कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध प्रदेशबन्ध है । योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्मपरमाणु ज्ञान को प्रावत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख-दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न प्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं । इसे आगम की भाषा में प्रकृति बन्ध कहते हैं । १८3 (घ) नवतत्त्वसाहित्य संग्रह : देवानन्दतरिकृत सप्ततत्त्वप्रकरण अ० ४ १८२. भगवती ।११६ १८३: प्रकृति स्वभावः प्रोक्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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