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धर्म और दर्शन
प्रकृति बन्ध, और प्रदेश बन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं । १८४ केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बन्ध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुण स्थान में कषायाभाव के कारण कर्म का बन्धन इसी प्रकार का होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल, अस्थायी और नाममात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता। __ योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक आत्मा से पृथक् न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलो में निर्मित होती है । यह काल मर्यादा ही आगम की भाषा में स्थिति बन्ध है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरण आदि कर्म पुद्गलों की राशि कितने काल तक आत्मप्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादास्थि तिबन्ध है ।१८५
जीव के द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तोब मन्द आदि विपाक अनुभागबन्ध है। कर्म के शुभ या अशुभ फल की तीब्रता या मन्दता रस है। उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मन्द कैसा होगा, यह प्रकृतिप्रभृति की तरह कर्मबन्ध के समय ही नियत हो जाता है । इसे अनुभागबन्ध कहते हैं । १८६
जिन कर्मो का आत्मा ने बन्ध कर लिया है वे अवश्य ही उदय में आते हैं, और जब उदय में आते हैं तब उनका फल भोगना पड़ता
१८४. जोगा पयडिपएसं ।
-पंचम कर्मग्रन्थ, गा ६६ (ख) ठाणाङ्ग २।४।६६ टीका १८५. स्थिति : कालावधारणम् । १८६. अनुभागः तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसः तद्र पकर्मोऽनुभाग-कर्म ।
-भगवती १।४।४० बृत्ति (ख) अनुभागो रसो ज्ञेयः । (ग) विपाकोऽनुभावः।
-तत्त्वार्थ० ८।२२
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