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धर्म और दर्शन
गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम की है । अन्तराय कर्म :
जिस कर्म के उदय से देने, लेने में, तथा एकबार या अनेक बार भोगने और सामर्थ्य प्राप्त करने में अवरोध उपस्थित हो वह अन्तराय कर्म है ।१७४
इस कर्म की तुलना राजा के भंडारी से की गई है। राजा का भण्डारी राजा के द्वारा आदेश देने पर भी दान देने में आनाकानी करता है, विघ्न डालता है, वैसे ही यह कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा उपस्थित करता है ।१७५
अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं
(१) दान-अन्तराय कर्म-इस कर्म के उदय से जीव दान नहीं दे सकता।
(२) लाभ-अन्तराय कर्म-इस कर्म के उदय से उदार दाता की उपस्थिति में भी दान का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, अथवा पर्याप्त सामग्री के रहने पर भी जिसके कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो।
(ख) गोयं दुहुच्चनीयं कुलाल इव सुघडभुभलाईयं ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ, ५२ १७३. उत्तराध्यन ३३१२३
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र० अ० ८।१७-२० १७४. अस्ति जीवस्य वीर्याख्योऽस्त्येकस्तदादिवत् । तदन्तरयतीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् ।।
-पंचाध्यायो २।१००७ १७५. जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति-पततीत्यन्तरायम् । इदं चैवं
जह राया दाणाइ ण कुणइ भंडारिए विकूलंमि । एवं जेणं जीवो, कम्मं तं अन्तरायं ति ।
-ठाणांग-२।४।१०५ टीका
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