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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
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(२) नीचगोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म अप्रतिष्ठित एवं असंस्कारी कुल में होता है । १६९
उच्च गोत्र कर्म के भी पाठ उपभेद हैं।- (क) जाति उच्च गोत्र, (ख) कुल उच्च गोत्र, (ग) बल उच्चगोत्र, (घ) रूप उच्चगोत्र, (ङ) तप उच्चगोत्र, (च) श्रत उच्चगोत्र, (छ) लाभ उच्चगोत्र, (ज) (ज) ऐश्वर्य उच्चगोत्र । इनका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है। ध्यान रखना चाहिए कि मातृपक्ष को जाति और पितृपक्ष को कुल कहा जाता है।
नीच गोत्र कर्म के भी पाठ उपभेद हैं१७१-(क) जातिनीचगोत्रमातृपक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण, (ख) कुलनीच गोत्रपितृपक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण । (ग) बलनीच गोत्र-बलविहीनता का कारण । (घ) रूपनीचगोत्र-रूपविहीनता का कारण (ङ) तप नीचगोत्र-तपविहीनता का कारण (च) श्र त-नीचगोत्रश्रतविहीनता का कारण, (छ) लाभनीचगोत्र-लाभविहीनता का कारण, (ज) ऐश्वर्य-नीचगोत्र-ऐश्वर्यविहीनता का कारण । ___ इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गई है। कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही घड़े ऐसे होते हैं जिन्हें लोग कलश बनाकर अक्षत, चन्दन आदि से चचित करते हैं, और कितने ही ऐसे होते हैं जो मदिरा रखने के कार्य में
आते हैं और इस कारण निम्न माने जाते हैं। उसी प्रकार जिस कर्म के कारण जीव का व्यक्तित्व श्लाघ्य एवं अश्लाघ्य बनता है७२ वह गोत्र कर्म कहलाता है।
१६६. गोयं कम्मं तु दुविहं, उच्च नीयं च आहियं ।
-उत्तर ध्ययन ३३।१४
१७०. उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ।
-उत्तरा० ३३।१४ १७१. प्रज्ञापना-२३।१, २६२; २३।२।२६३ १७२. (क) जह कुभारो भंडाइ कुणइ पुज्जेयराइ लोयस्स । इय गोयं कुण इ जियं, लोए पुज्जेयरानत्थं ।।
-ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका
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