________________
२६
धर्म और दर्शन
जैसे दूध और पानी बहिर्दृष्टि से एक प्रतीत होते हैं वैसे ही संसारी दशा में जीव और शरीर एक लगते हैं, पर वे पृथक्पृथक् हैं ।
वादिदेव सूरि ने संक्षेप में सांसारिक आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है । "आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्मों का कर्त्ता है । सुख-दुःख का साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौगलिक कर्मों से युक्त है। '३४ प्रस्तुत परिभाषा में जैन दर्शन सम्मत आत्मा का पूर्णरूप आ गया है ।
आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि के लिए श्री जिनभद्र गरणी ने विशेषावश्यक भाष्य में विस्तार से अन्य दार्शनिकों के तर्कों का खण्डन कर आत्मा की संसिद्धि की है । विस्तार भय से वह सारी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है । पाठकों को मूल ग्रन्थ देखना चाहिए । ३५
जैन श्रागम साहित्य में भी यथाप्रसंग नास्तिक दर्शन का उल्लेख कर उसका निराकरण किया गया है । सूत्रकृताङ्ग में अन्य मतों का निर्देश करते हुए नास्तिकों के सम्बन्ध में कहा है – “कुछ लोग कहते हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रकाश - ये पाँच महाभूत हैं । इन पाँच महाभूतों के योग से श्रात्मा उत्पन्न होता है और इनके विनाश व वियोग से आत्मा भी नष्ट हो जाता है ।
३४.
३५.
३६.
प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा । चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक ७१५५-५६
विशेषावश्यकभाष्य |
सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी प्राउ तेउवा, वाउ आगास पंचमा | एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह तेसि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥
Jain Education International
— सूत्रकृताङ्ग श्र० १ । गाथा ७-८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org