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________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन २५ पर भी सभी आत्माएँ चेतन और असंख्यात प्रदेशी हैं, अतः एक हैं 30 क्षेत्र की दृष्टि से जीव लोकपरिमित है । जहाँ लोक है वहाँ जीव है । जहां तक जीव है वहाँ तक लोक है । 3" आत्मा प्रच्छेद्य है, अभेद्य है, उसे अग्नि जला नहीं सकती, शस्त्र काट नहीं सकता । २ जीव कदापि विलय को प्राप्त नहीं होता । यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि अस्तित्व अस्तित्व में परिणमन करता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणमन करता है | 33 द्रव्य से अस्तित्व वान् जीव भविष्य में नास्तित्व में परिणमन नहीं कर सकता । ३०. ३१. ३२. ३३. (ख) दव्वओ गं. जीवत्थिकाए अरणंताई दव्वाइ' । एगे आया । - ठाणाङ्ग १०१ जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव लोए । --ठाणाङ्ग १०।ε३१ से न छिज्जइ न भिज्जइ न उज्झइ न हम्मइ कंचरणं सव्वलोए । - आचारांग १।३।३ (ख) अह भंते ! कुम्भे कुम्भावलिया गोहे गोहावलिया गोणे गोणावलिया मस्से मरगुस्सावलिया महिसे महिलावलिया, एएसि गं दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अन्तरा तेवि गं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा ? हन्ता फुडा । पुरिसे णं भंते ! (जं अंतरं) ते अन्तरे हत्थेण वा पाएण वा अंगुलिया वा सलागाए वा कट्ट ेण वा कलिचेण वा आमुसमागे वा संमुसमाणे वा आलिहमारणे वा विलिहमारणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिन्दमाणे वा विच्छिन्दमारणे वा afratri वा समोsहमाणे तेसि जीवपएसारणं किंचि आबाहं वा विवाहं वा उप्पायइ छविच्छेदं वा करेइ ? णो तिट्ट े समट्ठ े, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ ।” -ठाणाङ्गः ५।३।५३० - Jain Education International - भगवती ८।३।३२४ नत्थित्त नत्थित्त - भगवती १।३।३२ से पूणं भन्ते ! अत्थित्त अत्थित्त परिणमइ, परिणमइ ? हन्ता गोयमा ! जाव परिणमइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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