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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
आचार्य शीलाङ्क ने प्रस्तुत गाथाओं की वृत्ति में लिखा हैभूतसमुदाय काठिन्य आदि धर्मों वाले हैं । उनका गुरण चैतन्य नहीं है । पृथक्-पृथक् गुरण वाले पदार्थों के समुदाय से किसी अपूर्व गुण वाले पदार्थ की निष्पत्ति नहीं होती । जैसे रूक्ष बालुकरणों के समुदाय से स्निग्ध तेल की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही चैतन्य गुण वाली आत्मा की जड़त्व धर्म वाले भूतों से उत्पत्ति होना सम्भव नहीं । ३७ भिन्न गुण वाले पाँच भूतों के संयोग से चेतनागुरण की निष्पत्ति नहीं होती । यह प्रत्यक्ष है कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ही परिज्ञान करती हैं । एक इन्द्रिय द्वारा जाने हुए विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जानती, किन्तु पाँचों इन्द्रियों के जाने हुए विषय को समष्टि रूप से अनुभूति कराने वाला द्रव्य कोई भिन्न ही होना चाहिए और उसे ही श्रात्मा कहते हैं 13
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इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन के मौलिक और स्पष्ट विचार है ।
बौद्ध दृष्टि :
महात्मा बुद्ध ने सांसारिक विषयासक्ति से दूर रहकर आत्मगवेषणा और आत्म-शान्ति का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा - आत्मदीप होकर विहार करो, आत्मशरण, अनन्यशरण ही रहो"प्रत्तदीपा विहरथ, अत्तसररणा अनञ्ञसरणा" 13 उनकी दृष्टि से जो
३७. भूतसमुदायः स्वातन्त्र्ये सति धर्मित्वेनोपादीयते न तस्य चेतनाख्यो गुणोऽस्तीति साध्यो धर्मः, पृथिव्यादीनामन्यगुणत्वात् । यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्राऽपूर्व गुणोत्पत्तिर्न भवतीति । यथा सिकतासमुदाये स्निग्ध गुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये वा न स्तम्भादयो विभावा इति, दृश्यते च कार्यंचैतन्यं तदात्मगुणो भविष्यति न भूतानामिति ।
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३८. पंचन्हं संजोगे अण्णगुणाणं न चेयणाई गुणो होइ । पंचिन्दिय ठाणारणं सा अण्णमुरिणयं मुणई
अण्णो ॥
- सूत्रकृताङ्ग - शोलांकवृत्ति
३६. दीघनिकाय ३ | ३|१
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- सूत्रकृताङ्गः वृत्ति
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