________________
धर्म और दर्शन
निर्मोही है वहीं अक्षय आध्यात्मिक आनन्द का अधिकारी है । और वह सुख बिना काम-सुख त्यागे प्राप्त नहीं हो सकता।
कामसुख हीन और अनार्य है। जब तक उसका परित्याग नहीं किया जाता, उस पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, तब तक प्राध्यात्मिक आनन्द का अनुभव नहीं होता।४१
आध्यात्मिक सुखानुभूति होने के पश्चात् पुनः प्राणी किसी सांसारिक सुखतृष्णा में नहीं पड़ सकता। यह प्राध्यामिक सुख सम्राटों के और देवताओं के सुख से बढ़कर है ।४२
प्रात्मशरण की प्रबल प्रेरणा देने पर भी बौद्ध दर्शन प्रात्मा के सम्बन्ध में एक निराली दृष्टि रखता है । वह किसी दृष्टि से आत्मवादी है और किसी दृष्टि से अनात्मवादो भी है। एक ओर पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, कर्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष को स्वीकारने के कारण प्रात्मवादी है तो दूसरी ओर आत्मा के अस्तित्व को सत्य नहीं किन्तु काल्पनिक संज्ञा मानने के कारण अनात्मवादी है।
महात्मा बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया है। इसका अर्थ आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु उपनिषदों में जो
४०. तो क्या मानते हो मागन्दिय ! क्या तुमने कभी देखा या सूना है
किसी को विषय भोगों से लिप्त विषयों को बिना छोड़े, काम दाह बिना त्यागे, काम सृष्णा बिना छोड़े, पिपासारहित होकर अपने अन्दर शान्ति अनुभव करते हुए ? नहीं, भो गौतम ! साधु मागन्दिय ! मैंने भी नहीं देखा न सुना।
-मज्झिम नि० (मागन्दिय सुत्तन्त,) २।३।५ ४१. मज्झिम निकाय १।४।८ (महातण्हासंखय-सुत्तन्त)। ४२. यथा हि राजा रज्जसुखं देवता दिव्वं सुखं अनुभवन्ति एवं अरिया
अरियं लोकुत्तरं सुखं अनुभविस्सामीति इच्छतिच्छ तक्खणे फलसमापत्ति समापज्जन्ति ।
-विसुद्धिमग्ग ३८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International