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________________ २२४ धर्म और दर्शन सभी प्राणियों को परिग्रह ने जकड़ रक्खा है। इससे बढ़कर अन्य कोई भी बंधन नहीं है ।२२ ___ जो ममत्त्वबुद्धि का त्याग करता है, वही व्यक्ति ममत्व का भी त्याग करता है, वही सच्चा और अच्छा साधक है। जिसे किसी भी प्रकार का ममत्त्व नहीं है ।२३ सच्चा साधक अपने तन पर भी ममत्त्व नहीं रखता ।२४ ___ जो व्यक्ति अर्थ को अनर्थ का कारण न मानकर उसे अमृत मानता है और उसे प्राप्त करने के लिए पापकृत्य करता है, वह कर्मों के दृढ़ पाश में बन्ध जाता है, अनेक जीवों के साथ वैरानुबन्ध कर अन्त में विराट् वैभव को यहीं छोड़कर एकाकी नरक में जाता है ।२५ पदार्थ ससीम है और तृष्णा असीम है, आकाश के समान अनन्त है। सूवर्ण, रजत के असंख्य पर्वत भी लोभी मानव के दिल में परितृप्ति उत्पन्न नहीं कर सकते । विराट् वैभव भी उसके मन को प्रमुदित नहीं कर सकता, वह समझता है—यह बहुत ही कम है।" २२. नत्थि एरिसो पासो, पडिबंधो अत्थि सव्व-जीवाणं। -प्रश्नव्याकरण जे ममाइअ मई जहाइ, से जहाइ ममाइग्रं । सेहु दिट्ठभएमुणी जस्स नत्थि ममाइअं॥ -प्राधारांग २४. अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं । -दशवैकालिक २५. जे पावकम्मेहिं धण मणूसा, समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेरागुबद्धा जरयं उर्वति । -उत्तराध्ययन, प्र० ४ गा० २ २६. सुवण्णरूवस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि .. इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ -उत्तराध्ययन अ०६ । गा० ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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