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महावीर के सिद्धान्त
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साधना हिंसा के विना संभव नहीं है । अतः महावीर ने महाव्रत' और अणुव्रत में हिंसा को प्रथम स्थान दिया ।
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यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रमण भगवान् श्री महावीर हिंसा सिद्धांत केवल निषेधात्मक ही नहीं, अपितु विधेयात्मक भी है | प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के जो साठ पर्यायवाची नाम बताये हैं, वे अहिंसा के विराट् स्वरूप के या उसके विविध रूपों के निर्देशक हैं । उनमें ग्यारहवां नाम दया है । १७ प्राचार्य श्री मलयगिरि ने उसका अर्थ 'देहधारी जीवों की रक्षा करना' किया है।' अहिंसा के जहाँ नेक नाम निषेधात्मक हैं वहाँ अनेक नाम विधेयात्मक भी हैं, जैसे रक्षा, दया, अभय आदि ।" निष्कर्ष यह है कि भगवान् महावीर के विराट् हिसातत्व को समझने के लिए अहिंसा के दोनों पहलुओं को समझना आवश्यक है । गान्धी जी ने भी कहा है - जहाँ दया नहीं, वहाँ हिंसा नहीं" २° अस्तु ।
अपरिग्रह
भगवान् श्री महावीर ने अपरिग्रह का सन्देश देते हुए कहा" वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है, किन्तु वस्तु के प्रति मूर्च्छा भाव ही वस्तुतः परिग्रह है । २१ परिग्रह एक प्रकार का बंधन है । संसार के
१५. अहिंससच्चं च अतेणगं च ततो य बंभं च अपरिग्यहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाई, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं बिऊ || - उत्तराध्ययन, २१ २२
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२०.
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उपासक दशांग अ० १
प्रश्नव्याकरण संवरद्वार
दयादेहिरक्षा |
प्रश्न श्याकरण संवरद्वार ।
गान्धीवाणी पृ० १७
मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ।
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- दशवेकालिक श्र० ६ । गा० २०
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