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________________ २२८ धर्म और दर्शन वर्ण वाला है किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से उसमें श्वेत, कृष्ण, नील आदि पाँचों वर्ण हैं। इसी प्रकार राख और शुक-पिच्छ3९ के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त करने पर भगवान् ने व्यवहार और निश्चयनय की दृष्टि से उत्तर प्रदान किये। महात्मा बुद्ध ने लोक, जीव आदि की नित्यता, अनित्यता, सान्तता और अनन्तता के प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टाल दिया। किन्तु भगवान् श्री महावीर ने उन प्रश्नों के उत्तर विविध रूप से प्रदान किये । महात्मा बुद्ध ने अात्मा आदि के सम्बन्ध में चिन्तन करना साधक के लिए अनूचित माना है। उसे--"अयोनिसोमनसिकारविचार का अयोग्य ढंग कहा है। "अयोनिसोमनसिकार" से आश्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न प्राश्रव वृद्धिगत होते हैं। परन्तु भगवान् श्री महावीर ने साधना की दृष्टि से जीव, लोक प्रादि काज्ञान आवश्यक माना है ।४२ जब तक इन बातों का ज्ञान नहीं होता, तब तक कोई ३७. भमरे णं भन्ते ! कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! एत्थणं दो नया भवन्ति तं जहा णिच्छइयणए य, वावहारियणए य । वावहारियणयस्स कालए भमरे, णिच्छइयणयस्स पंचवणे जाव अट्ठ फासे ।। -भगवती शतक १८१६ ३८. छारियाणं भन्ते ! पुच्छा ? गोयमा ! 'एत्थरणं दो नया भवन्ति तं जहा-णिच्छइयणए य, वावहारियणएय । वावहारियणयस्स लुक्खा छारिया, णेच्छइयस्स पंच वण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्त । -भगवती शतक १८१६ सुपिच्छेरणं भन्ते ! कइवण्णे पण्णत्त ! एवं चेव णवरं वावहारिय. णयस्स गीलए सुअपिच्छे, णेच्छइयस्स णयरस सेसन्तं चेव । -भगवती १८१६ ४०. मज्झिमनिकाय चूलमालुक्यसुत्त ६३ । ४१. मज्झिमनिकाय-सव्वासवसुत्त २ ४२. इहमेगेसि नो सन्ना भवइ तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा....अन्नयरीयाओ वा दिसाओ वा अणुदिसाओ ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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