________________
धर्म और दर्शन
जैसे गणित करनेवाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती, वैसे हो कर्म भी जड़ होने पर भो फल देने में भूल नहीं करता, उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की आवश्यकता नहीं है । आखिर ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के होंगे । कर्म के विप रीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा । इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे प्रणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना, वस्तुतः ईश्वर का उपहास है । इससे यह भी सिद्ध है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधीन ही कार्य करता है । दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने धरने की शक्ति नहीं माननी होगी, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे से ही अपना फल दे सकता है । इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधीन हो जाएँगे । इससे तो यही श्रेष्ठ है कि स्वयं कर्म को ही अपना फल देने वाला स्वीकार किया जाय। इससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी अक्षुण्ण रहेगा और कर्म - वाद के सिद्धान्त में भी किसी प्रकार की बाधा समुपस्थित नहीं होगी। जैन संस्कृति की चिन्तनधारा भी प्रस्तुत कथन का ही समर्थन करती है ।
६०
कर्म का संविभाग नहीं:
वैदिक दर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान् ईश्वर के हाथ की कठपुतली है । उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है । स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने
हंता ! अस्थि ! कहं णं भंते ! जीधारणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जन्ति ?.... कालोदाई ! जीवाणं पाणा इवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमरणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्ल विवेगे तस्स गं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव नो दुखत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ । एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जति ।
-भगवती ७।१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org