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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण वाला ईश्वर है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है।८ जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा कि-ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है । प्रात्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है । जब आत्मा स्वभाव दशा में रमरण करता है तब उत्थान करता है और जब विभाव दशा में रमण करता है तब उसका पतन होता है। विभाव दशा में रमरण करने वाला आत्मा ही वेतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है, और स्वभावदशा में रमण करने वाला आत्मा कामधेनु और नन्दनवन है। यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता, भोक्ता स्वयं ही है । शभ मार्ग पर चलने वाला प्रात्मा मित्र है, और अशुभ मार्ग पर चलने वाला प्रात्मा शत्रु है । __ जैन दर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है । जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा।९१ वैदिकदर्शन और बौद्ध ८८. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।। - महाभारत, वनपर्व प्र० ३० श्लो. २८, ८६. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेनू, अप्पा मे नंदणं वणं ।। -उत्तराध्ययन २०१३६ ६०. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिअ सुपट्ठिओ ॥ -उत्तराध्ययन २०१३७ ६१. संसारमावन्न परस्स अट्टा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, ण बंधवा बंधवयं उति ।। -उत्तराध्ययन ४।४ माया पिया एहसा भाता, भज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मणा ॥ --उत्तराध्ययन ६।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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