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धर्म और दर्शन
दर्शन की तरह वह कर्म फल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। विश्वास ही नहीं, किन्तु उस विचारधारा का खण्डन भी करता है।९२ एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है ? पाप पुण्य करेगा कोई और, भोगेगा कोई और। अतः यह सिद्धान्त युक्ति-युक्त नहीं है । कर्म का कार्य :
कर्म का मुख्य कार्य है-आत्मा को संसार में प्राबद्ध रखना। जब तक कर्मबंध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान रहता है, तब तक आत्मा मुक्त नहीं बन सकता। यह कर्म का सामान्य कार्य है। विशेष रूप से देखा जाय तो भिन्न भिन्न कर्मों के भिन्न भिन्न कार्य हैं; जितने कर्म हैं उतने ही कार्य हैं । जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं-(१) ज्ञानावरण
(ख) ११
६२. आत्ममीमांसा पं० दलसुख मालवणिया पृ० १३१ (ख) श्री अमर भारती, भारतीय दर्शनों में कर्मविवेचन ।
-उपाध्याय अमरमुनि ६३. मिलिन्द प्रश्न ४।८।३०-३५ पृ० २८८
(ख) कथावत्थु ७।६।३ । पृ० ३४८ १४. स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा,
फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं ।
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजाजितं कर्म विहाय देहिनो,
न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन । विचारयन्नेवमनन्य - मानसः परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ।।
-द्वात्रिंशिका, प्राचार्य अमितगति ३०-३१
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