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धर्म और दर्शन
भगवान् महावीर के जीवन का तलस्पर्शी अध्ययन करने पर निःसंकोच कहा जा सकता है कि वे तपोविज्ञान के अद्वितीय आचार्य थे। उन्होंने अपने समय में प्रचलित देहदमनरूप बहिमुख तप का आन्तरिक साधना के साथ सामंजस्य स्थापित किया और उसे आन्तरिक एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया। इस प्रकार वे तपः साधना के महान् संस्कर्ता और साथ ही पुरस्कर्ता भी हुए। उनकी अनेक बहुमूल्य देनों में तपविषयक देन भी कम महत्त्व की नहीं है। ____जैनागमों की तरह बौद्ध वाङ्मय में भी अनेक स्थलों पर महावीर के शिष्यों के लिए निगंठ' के साथ 'तपस्सी' 'दिग्घ तपस्सी' विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। इससे भी स्पष्ट है कि महावीर स्वयं कितने उग्र तपस्वी रहे होंगे । अनुत्तरोपपातिक", अन्तकृत् दशा", भगवती" आदि आगमों में महावीर के शिष्य और शिष्याओं का वर्णन है । उन्होंने रत्नावली, कनकावली, मुक्तावली लघुसिंहनिष्क्रीडित, भिक्षु प्रतिमा, लघु सर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर प्रतिमा, आयंबिल वर्धमान, गुणरत्न संवत्सर, चन्द्र प्रतिमा, संलेखना आदि महान् तप करके देह को जर्जरित बनाया था।° “तवसूरा अरणगारा"+ अनगार तप में शूर होते हैं, यह जैन परम्परा का प्रसिद्ध वाक्य है।
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उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी ।
, -भगवती शतक १ उद्दे० ३ मज्झिमनिकाय ५६ उपालिसुत्त २।१।६ अनुत्तरौपपातिक वर्ग ३ अन्तकृत्दशा वर्ग ६, अ० ३, वर्ग ८, अ० १-१० भगवती २१ अन्तकृतदशा। + खंतिसूरा अरिहन्ता, तवसूरा अणगारा । दाणसूरे वेसमणे, जुद्धसूरे वासुदेवे ।।
-ठाणाङ्ग ४।३।३६३
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