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श्रमणसंस्कृति और तप
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जैन श्रमण के लिए जहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पन्न विशेषण प्रयुक्त हुए है वहाँ उसे तपसम्पन्न भी कहा गया है ।२१ ___ तप जीवनोत्थान का प्रशस्त पथ है । तप की उत्कृष्ट अाराधनासाधना से तीर्थकर पद प्राप्त होता है। सभी तीर्थङ्करों ने अपने पूर्व भवों में तप की साधना की । श्रमण भगवान् श्री महावीर के जीव ने 'नन्दन' के भव में एक लक्ष वर्ष तक निरन्तर मासखमण की तपस्या की ।२२ उन मासखमणों की संख्या ग्यारह लाख साठ हजार थी।
वैदिक संस्कृति ने भी साधक के लिए तप को साधना आवश्यक मानी है ।२3 योग दर्शन ने तप को क्रियायोग में स्थान दिया है ।२४
२१. भगवती। २२. सयसहस्स सम्वत्थ मासभत्तेणं ।
-आवश्यक नियुक्ति गा० ४५० (ख) एक्कारस अंगाइ अहिज्जित्ता तत्थ मासं मासेणं खममाणो एगं बाससहस्सं परियागं पाउणित्ता
-प्रावश्यक चूणि पृ० २३५
जिनदासगणी महत्तर (ग) सयसहस्स त्ति वर्षशतसहस्र यावदिति । कथं ? सर्वत्र मासभक्तेनेति अनवरतमासोपवासेनेति ।
-प्रावश्यक मलयगिरिवृत्ति प० २५२ (घ) तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा ।
-समवायाङ्ग, अभयदेव वृत्ति १३६ (ङ) मासोपवास: सततः श्रामण्यं स प्रकर्षयन् । व्यहार्षीद्गुरुणा सार्धं ग्रामाकरपुरादिषु ।
-त्रिषष्ठि० १०११।२२१ २३. शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
-योगदर्शन २।३२ २४. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।
-योगदर्शन २११
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