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________________ स्याद्वाद सत्ता और असत्ता : जब यह निश्चित हो जाता है कि वस्तुतत्त्व सापेक्ष है और स्याद्वादपद्धति से ही उसका ठीक प्रतिपादन हो सकता है, तो वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व के विषय में भी हमें अनेकान्त को लागू करके देखना होगा। जैन दार्शनिकों ने बड़ी ही खूबी के साथ इस विषय पर ऊहापोह किया है और स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के द्वारा अस्तित्व नास्तित्व की समस्या का समाधान खोजा है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये चारों चतुष्टय कहलाते हैं। प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्ववान् है और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है ।२४ ___ उदाहरण के लिए एक स्व गंधट को लीजिए । वह स्वर्ण का बना है, यह स्वद्रव्य की अपेक्षा अस्तित्व है। वह जिस क्षेत्र अर्थात् स्थान में रक्खा है, उस क्षेत्र की अपेक्षा से है । जिस काल में उसकी सत्ता है, उस काल की अपेक्षा से है । उसमें जो पीतवर्ण आदि अनेक पर्याय विद्यमान हैं, उनकी अपेक्षा से है । किन्तु वही घट मृत्तिकाद्रव्य को अपेक्षा से नहीं है। अन्य क्षेत्र की अपेक्षा से भी नहीं है। कालान्तर की अपेक्षा से भी नहीं है । कृष्णवर्ण आदि पर्यायों से भी उसमें अस्तित्व नहीं है । इसी प्रकार स्वर्णघट सोने का है, मृत्तिका आदि का नहीं है । अमुक क्षेत्र में है अन्य क्षेत्र में नहीं है। जिस काल में है उसके अतिरिक्त अन्य काल की अपेक्षा से नहीं है। वह अपने स्वपर्यायों से है, पर पर्यायों से नहीं है, इस प्रकार स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा उसमें अस्तित्व और नास्तित्व सहज ही घटित होते हैं। कई लोग अस्तित्व और नास्तित्व को विरोधी धर्म समझ कर एक ही वस्तु में दोनों का समन्वय असंभव मानते हैं मगर वे भूल जाते हैं कि एक हो अपेक्षा से यदि अस्तित्व और नास्तित्व का विधान किया जाय तभी उनमें विरोध होता है, विभिन्न अपेक्षाओं से विधान २४. सदेव सर्व को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात् । ___ असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। ~प्राप्तमीमांसा, श्लोक १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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