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धर्म और दर्शन
करने में कोई विरोध नहीं होता। किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह कहना कि यह मनुष्य है, मनुष्येतर नहीं है; भारतीय है, पाश्चात्य नहीं है। वर्तमान में है, सदा से या सदा रहने वाला नहीं है, विद्वान् है मूर्ख नहीं है तो क्या हम उस व्यक्ति के विषय में परस्परविरुद्ध विधान करते हैं ? नहीं । यह विधान न केवल तर्कसंगत है, अपितु व्यवहारसंगत भी है। हम प्रतिदिन इसी प्रकार व्यवहार करते हैं। ऐसा व्यवहार किए विना किसी वस्तु का निश्चय हो भी नहीं सकता। 'यह पुस्तक है' ऐसा निश्चय तो तभी संभव है, जब हम यह जान लें कि यह पुस्तक के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।
इन उदाहरणों से प्रत्येक पदार्थ सत् और असत् किस प्रकार है, यह समझ में आ जाता है । मगर जैनाचार्यों ने इस विचार को सुस्पष्ट करने के लिए सप्तभंगी का विधान किया है, जिससे वस्तु में प्रत्येक धर्म की संगति एकदम निर्विवाद हो जाती है। सप्तभंगी:
प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उन अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की ठीक-ठीक संगति बिठलाने के लिए विधि, निषेध आदि की विवक्षा से सात भंग होते हैं। यही सप्तभंगी है।२५ ये सात भंग प्रत्येक धर्म पर घटित किए जा सकते हैं, किन्तु उदाहरण के रूप में सत्ताधर्म को लेकर यहाँ उनका उल्लेख किया जाता है। वे निम्न लिखित हैं
(१) स्यादस्ति-स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है।
(२) स्यान्नास्ति-परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु नहीं है।
(३) स्यादस्ति-नास्ति-स्वकीय तथा परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वस्तु है और नहीं है ।
२५. सप्तभिः प्रकारैर्वचन-विन्यासः सप्तभङ्गीतिगीयते ।
-स्याद्वाद मंजरी, का० २३ टीका
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