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स्थाद्वाद
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(४) स्यादवक्तव्य-युगपद् कथन की अपेक्षा से वस्तु अनिर्वचनीय है, अर्थात् सत्ता और असत्ता को एक साथ कहा नहीं जा सकता।
(५) स्यादस्ति-प्रवक्तव्य - वस्तु स्वचतुष्टय से सत् होने पर भी, एक साथ स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से प्रवक्तव्य है।
(६) स्यान्नास्ति-प्रवक्तव्य --पर चतुष्टय से असत् होते हुए भी एक साथ स्व-पर चतुष्टय से अवक्तव्य है।
(७) स्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य- स्वचतुष्टय से सत्, पर चतुष्टय से असत् होते हुए भी एक साथ स्व-पर चतुष्टय से अनिर्वचनीय हैं । ___इसी प्रकार नित्यत्व, एकत्व आदि उभी धर्मों के विषय में यह सप्तभंगी लागू होती है । यह सात भंग वन-प्रथम और द्वितीय भंग के ही व्यापक स्वरूप हैं।
पाठक समझ सकेंगे कि स्याद्वाद सिद्धान्त में स्तुस्वरूप की विवे. चना सापेक्ष दृष्टि से की गई है। उक्त सातों भंगों का आधार काल्पनिक नहीं वरन् वस्तु का विराट और विविधरूप स्वरूप ही है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारिक शक्ति और व्यापक प्रभाव को हृदयंगम करके डाँ० हर्मन जैकोबी ने कहा था-'स्याद्वाद से सब सत्यविचारों का द्वार खुल जाता है।' __अभी हाल में ही में अमेरिका के विश्रु त दार्शनिक प्रोफेसर प्राचि० जे० बह्न ने स्याद्वाद का अध्ययन करके जैनों को ये प्रेरणाप्रद शब्द कहे हैं-विश्वशान्ति की स्थापना के लिए जैनों को अहिंसा की अपेक्षा स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्यधिक प्रचार करना उचित है। महात्मा गाँधी को भी यह सिद्धान्त बड़ा प्रिय था और प्राचार्य विनोबा जैसे शान्तिप्रसारक सन्त इसके महत्त्व को मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। भ्रम निवारण :
सप्तभंगी सिद्धान्त के विषय में कतिपय पाश्चात्य और कुछ भारतीय विद्वानों को जो गलत धारण है, उसका उल्लेख यहाँ कर देना अनुचित न होगा।
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