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धर्म और दर्शन
की उत्पत्ति मानता है और शरीर का विनाश होने पर चेतना का भी विनाश हो जाना स्वीकार करता है ।२१ सूत्रकृतांग सूत्र में तज्जीवतच्छरीरवाद का उल्लेख मिलता है। वह चार्वाक मत से किचित् भिन्न होता हया भी एक ही वस्तु को जीव और शरीर के रूप में स्वीकार करता है ।२२ अनेक दर्शन प्रात्मा का शरीर से एकान्त भिन्नत्व स्वीकार करते हैं। इस समस्या को सुलझाते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा कथंचित् शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी है ।२३ अात्मा को शरीर से भिन्न तत्त्व न माना जाय और दोनों का एकत्व स्वीकार किया जाय तो शरीर के नाश के साथ
आत्मा का भी नाश मानना होगा और उस स्थिति में पुनर्जन्म एवं मुक्ति की कल्पना निराधार हो जायगी। किन्तु युक्ति और आगम आदि प्रमाणों से पुनर्जन्म आदि की सिद्धि होती है, अतः आत्मा को शरीर से पृथक् मानना ही समीचीन है। साथ ही, अनादि काल से आत्मा शरीर के साथ ही रहा हुआ है और कृत कर्मो का फलोपभोग शरीर के द्वारा ही होता है। शरीर पर प्रहार होता है तो दुःख की अनुभूति आत्मा को होती है। देवदत्त पर प्रहार किया जाय तो जिनदत्त को दुःखानुभव नहीं होता, क्योंकि देवदत्त के शरीर से जिनदत्त की आत्मा भिन्न है। इसी प्रकार यदि देवदत्त की प्रात्मा देवदत्त के शरीर से भी सर्वथा भिन्न हो तो उसे भी दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिये । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैसे देवदत्त के शरीर और जिनदत्त की आत्मा में भेद है, वैसा भेद देवदत्त के शरीर और देवदत्त की आत्मा में नहीं है। यही देह और आत्मा का अभेद है।
२१. भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? २२. पत्तेयं कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिया । सन्ति पिच्चा न ते सन्ति, नत्थि सत्तोववाइया ।
-सूत्रकृतांग, १।१।११ २३. आया भन्ते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! आया वि काये, अन्ने
वि काये।
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