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स्याद्वाद
और परिवर्तनशीलता की दृष्टि से जोव और दीपक में कोई अन्तर नहीं है ।२० - केवल स्थिति ही होती तो सभी द्रव्यों का एक ही रूप रहता, उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। केवल उत्पाद और व्यय ही होता तो केवल उनका क्रम होता किन्तु स्थायी आधार के अभाव में उनका कुछ भी रूप नहीं होता । कर्तृत्व, कर्म और परिणामी की कोई विवेचना नहीं होती। स्याद्वाद की दृष्टि से परिवर्तन भी है और उसका आधार भी है। परिवर्तनरहित किसी भी प्रकार का स्थायित्व नहीं है । और स्थायित्व रहित किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं है। अर्थात् परिवर्तन स्थायी में होता है और स्थायी वही हो सकता है जिसमें परिवर्तन हो। सारांश यह है कि निष्क्रियता और सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रूप है उसे ही द्रव्य कहा गया है। अपने केन्द्र में प्रत्येक द्रव्य ध्र व, स्थिर और निष्क्रिय है। उसके चारों ओर परिवर्तन की एक शृङ्खला है जिसे हम परमाणु की रचना से समझ सकते हैं । विज्ञान के अनुसार अणु की रचना तीन प्रकार के कणों से मानी गई है-(१) प्रोटोन (२) इलेक्ट्रोन (३) न्यूट्रोन । धनात्मक करण प्रोटोन है। परमाणु का वह मध्यबिन्दु होता है। ऋणात्मक कण इलेक्ट्रोन है। यह धनाणु के चारों ओर परिक्रमा करता है । उदासीन कण न्यूट्रोन है। आत्मा का शरीर से भेदाभेद :
आत्मा शरीर से भिन्न है अथवा अभिन्न है, इस विषय में भी दर्शनशास्त्रों के मन्तव्य विविध प्रकार के उपलब्ध होते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा को शरीर से भिन्न स्वीकार नहीं करता। वह शरीर से ही चेतना
२०. आदीपमाव्योमसमस्वभावं
___ स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥
अन्ययोग व्यबच्छेदिका, श्लो० ५
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