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धर्म और दर्शन
वे किसी भी प्रकार से उचित नहीं हैं । यही नहीं, किन्तु इन प्रयासों ने धर्म को खतरा उत्पन्न कर दिया है। जब समग्र विश्व वेग के साथ समाजवाद की ओर अग्रसर हो रहा है, तब धर्म को एकान्त वैयक्तिक रूप प्रदान करने का प्रयत्न देश और काल से भी विपरीत है। वास्तविकता तो उसमें है ही नहीं। यह सत्य है कि लौकिक कर्त्तव्य के नाम पर प्रात्मा के शाश्वत कल्याण की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यह भी सत्य है कि आत्मकल्याण के नाम पर लौकिक कर्त्तव्यों को दृष्टि से अोझल नहीं कर देना चाहिए ।
जिसने धर्म के मर्म को पहचान लिया है वह आत्मकल्याण और लोककल्याण का सुन्दर समन्वय करके चलता है और उनमें किसी भी प्रकार विरोध नहीं उत्पन्न होने देता। यही धर्म की उदारता और व्यापकता है। जब तक धर्म में यह उदारता और व्यापकता बनी रहेगी, वह किसी भी देश और काल में अनुपादेय नहीं समझा जा सकेगा। अगर हम चाहते हैं कि मनुष्य का प्रत्येक कदम और प्रत्येक उच्छ वास धर्म से अनुप्राणित हो, तो हमें धर्म के उदार स्वरूप की रक्षा करनी ही होगी। इस प्रकार धर्म हमारे वैयक्तिक, सामाजिक, ऐहिक
और पारलौकिक कर्त्तव्यों का नियामक और संचालक है। धर्म से हमारा जीवन संगीतमय बनता है और साथ ही शिवमय भी। मनुष्य ने अनेक कलाओं का आविष्कार किया है, किन्तु धर्म कला उन सब में उत्तम है, जो जीवन को स्थायी सत्य, शिव और सौन्दर्य से अापूरित कर देती है। __आचार्य हरिभद्र ने धर्म की प्रशस्ति करते हुए लिखा है-"धर्म से उत्तम कुल में जन्म लेने की प्राप्ति होती है, धर्म से ही दिव्य रूप की, धन समृद्धि की और सुविस्तृत कोत्ति की प्राप्ति होती है । धर्म अनुपम मंगल है, समस्त दुःखों की अनुपम औषध है, धर्म विपुल बल है, धर्म ही प्राणियों के लिए त्राण और शरण है ।
अधिक क्या कहा जाय, समस्त जीवलोक में इन्द्रियों और
४. सव्वा कला धम्मकला जिरोइ ।
-गौतमकुलक
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