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________________ धर्म और दर्शन मोहनीय-जो कर्म सम्यक्त्व का प्रकट होना तो नहीं रोक सकता किन्तु औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं होने देता। (२) मिथ्यात्व मोहनीय-जो कर्म तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता, और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है । (३) मिश्र मोहनोय-जो कर्म तत्त्व श्रद्धा में दोलायमान स्थिति उत्पन्न करता है। दर्शनमोहनीय के शुद्ध दलिक सम्यक्त्व मोहनीय, अशुद्ध दलिक मिथ्यात्व मोहनीय और शुद्धाशुद्ध दलिक सम्यगमिथ्यात्वमोहनीय हैं ।१२८ इनमें मिथ्यात्व मोहनीय सर्वघाती है और शेष दो देशघाती हैं ।१२९ ___ मोहनीय कर्म का द्वितीय भेद चारित्रमोह है। यह कर्म आत्मा के चारित्र गुण को उत्पन्न नहीं होने देता। १३० चारित्र मोहनीय के भी दो भेद हैं- (१) कषाय मोहनीय (२) नोकषाय मोहनीय । 137 कषाय मोहनीय के सोलह भेद हैं और नो-कषाय मोहनीय के सात अथवा नौ भेद हैं । १३२ १२८. प्रथम कर्म ग्रन्थ, गा० १४-१६ ।। १२६. केवलणाणावरणं, दसणछक्कं कषायवारसयं । मिच्छं च सव्वघादी, सम्मामिच्छं अबंधम्हि ॥ -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ३६ (ख) केवलणाणावरणं दसणछक्कं च मोहबारसगं । ता सध्वधाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं । -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका में उद्धत १३०. एवं जीवस्य चारित्रं गुणोऽस्त्येकः प्रमाणसात् । तन्मोहयति यत्कर्म, तत्स्याच्चारित्रमोहनम् ॥ -पंचाध्यायी २११६ १३१. चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु नोकसायं तहेव य ॥ -उत्तराध्ययन ३३११० (ख) प्रज्ञापना २३२ १३२. सोलसविहभेएणं, कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ।। -उत्तरा० ३३।११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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