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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण वैसे ही मोह कर्म के उदय से जीव को तत्त्व तत्त्व का भेद - विज्ञान नहीं हो पाता, वह संसार के विकारों में उलझ जाता है । १२३ मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है - (१) दर्शन मोहनीय और ( २ ) चारित्र मोहनीय । १२४ यहाँ दर्शन का अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मगुण है । १२५ जैसे मदिरापान से बुद्धि मूच्छित हो जाती है वैसे ही दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक विलुप्त हो जाता है । वह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है । १२६ वह धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानता है । दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का है १२७ -- ( १ ) सम्यक्त्व १२३. मज्जं व मोहणीयं - प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा १३ (ख) जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ, तह मोहेण विमूढो जीवो उ परव्वसो होइ । (ग) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) २१ १२४. मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । ( ख ) ठाणाङ्ग २|४|१०५ (ग) प्रज्ञापना २३३२ १२५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् - स्थानाङ्ग २।४।१०५ टोका १२६. यथा मद्यादिपानस्य, पाकाद् बुद्धिविमुह्यति । श्वेतं शंखादि यद्वस्तु, पीतं पश्यति विभ्रमात् । तथा दर्शन मोहस्य, कर्मणस्तुदयादिह । अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुह ॥ Jain Education International - तत्त्वार्थ सूत्र १।२ ७३ - उत्तराध्ययन ३३.८ १२७. सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य । याओ तिनि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे || ( ख ) स्थानाङ्ग २११८४ - पंचाध्यायी २६८-६-७ -- उत्तराध्ययन ३३।६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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