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धर्म और दर्शन
अन्तर्मुहूर्त की बताई है । भगवती १२° में दो समय की कही गई है । इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मुहूर्त के अन्दर का समय अन्तर्मुहूर्त कहलाता है । दो समय को अन्तर्मुहूर्त कहने में कोई विसंगति नहीं है । वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र २१, और अन्य अनेक ग्रन्थों में बारह मुहूर्त की प्रतिपादित की गई है । उत्कृष्ट स्थिति सर्वत्र तीस कोटाकोटि सागर की है ।
मोहनीय कर्म :
जो कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करे वह मोहनीय है । आठ कर्मों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली है । अन्य सात कर्म प्रजा हैं तो मोहनीय कर्म राजा है । १२२ यह आत्मा के वीतराग भाव -शुद्धस्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा रागद्वेष आदि विकारों से ग्रस्त होता है । यह कर्म स्व-परविवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा समुपस्थित करता है ।
इस कर्म की तुलना मदिरापान से की गई है । जैसे मदिरापान से मानव परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता, वह हिताहित के विवेक से विहीन हो जाता हैं, १२०. वेदणिज्जं जह दो समया ।
- भगवती ६ | ३
१२१. अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ।
१२२.
- तत्त्वार्थ सूत्र ८।१६
(ख) वेदनीयप्रकृतेरपरा द्वादशमुहूर्ता स्थितिरिति ।
(ग) जहन्ना ठिई वेअणीअस्स बारस मुहुत्ता | नवतत्व साहित्य संग्रह : देवानन्द सूरिकृत, (घ) जैन दर्शन पृ० ३५४ डा० मोहनलाल मेहता अष्ट कर्म नो राजवी हो, मोह प्रथम क्षय कीन ।
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- तत्त्वार्थ भाष्य
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सप्तत स्वप्रकरण
विनयचन्द चौबीसी
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