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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण कषाय मोहनीय : कषाय शब्द कष और प्राय से बना है । कष-संसार आयलाभ, जिससे संसार अर्थात् भवभ्रमरण की अभिवृद्धि हो वह कषाय है । 33 क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में वह चार प्रकार का है | ये चार भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, यों चार-चार प्रकार के हैं । इस प्रकार सोलह भेद कषायमोहनीय के हैं । इसके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्क के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है । यह कषाय सम्यक्त्व का विघातक है । १३४ अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क के प्रभाव से देशविरति रूप श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के १३५ ( ख ) प्रज्ञापना २३२ (ग) स्थानाङ्ग 8|७००; (घ) समवायांग - १६ १३३. कम्मं कसो भवो वा, कसमातो सिं कसाया तो । कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसायत्ति ॥ ७५ - श्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति पृ० ११६ - विशेषावश्यक भाष्य गा० १२२७ १३४. ( क ) अनन्तानुबंधी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । - तत्त्वार्थ सूत्र ८ । १० भाष्य ( ख ) अनन्तायनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या - क्रोधाद्यषु नियोजिता ॥ १९३५. स्वल्पमपि नोत्सहेद् येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञा तो द्वितीयेषु (ख) अप्रत्याख्यान कषायोदयाद्विरतिर्न भवति -- निवेशिता ।। Jain Education International -तत्त्वार्थ भाष्य ८।१० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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