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धर्म और दर्शन
आयुष कर्म का कार्य सुख दुःख देना नहीं, किन्तु नियत अवधि तक किसी एक भव में रोके रखना है ।१४८
आयु कर्म की चार उत्तर प्रकृतियाँ हैं-(१) नरकायु, (२) तिर्यञ्चायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु ।१४९ अायु दो रूपों में उपलब्ध होती है । अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । बाह्य निमित्तों से आयु का कम होना अपवर्तन है। किसी भी कारण से प्रायु का कम न होना अनपवर्तन है ।१५० मगर आयु कम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं कि आयु कर्म का कुछ भाग बिना भोगे ही नष्ट हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रायु कर्म के जो प्रदेश धीरे-धीरे बहुत समय में भोगे जाने वाले थे; वे सब अल्पकाल में-अन्तमुहूर्त में ही भोग लिये जाते हैं। लोकव्यवहार में इसी को अकाल मृत्यु कहते हैं।
(ख) जीवस्य अवट्ठाणं करेदि आऊ हडिव्व गरं ।
-गोम्मटसार-कर्मकाण्ड ११ (ग) सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं ।
-प्रथम कर्म ग्रन्थ २३ १४८. दुक्खं न देइ आउ नवि य सुहं देइ चउसुवि गईसु । दुक्खसुहाणाहारं धरेइ देहट्ठियं जीयं ।।
-ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका १४६. नारकर्तर्यग्योनमानुषदेवानि ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ८।११ (ख) गोयमा ! आउयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउविहे
अणुभावे पन्नत्त - तं जहा-नेरइयाउते, तिरियाउते, मणुयाउते, देवाउए।
-प्रज्ञापना २३३१ (ग) नेरइयतिरिक्खा, मणुस्सा तहेव य । देवाउयं चउत्थं तु, पाउ कम्मं चउविहं ॥
-उत्तराध्ययन ३३।१२ १५०. तत्वार्थ सूत्र २।५२, पं० सुखलाल जी का विवेचन
पृ० ११२-११६ तक।
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