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कर्मवाद : पर्यवेक्षण (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा१४३, (9) स्त्री वेद, (८) पुरुष वेद (६) नपुंसक वेद ।।
इस प्रकार चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों में से संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय ये अघाती हैं, और शेष बारह प्रकृति सर्वघाती हैं । १४४
मोहनीय कर्म की स्थिजघन्य अन्तमुहूर्त की हैं और उत्कृष्ट सतर कोटाकोटी सागर की है ।१४५ आयुष्कर्म :
जीवों के जीवन अवधि का नियामक कर्म आयुष्य है। इस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु का आलिंगन करता है ।१४६
इस कर्म की तुलना कारागृह से की गई है । जैसे न्यायाधीश अपराधी को अपराध के अनुसार नियत समय तक कारागृह में डाल देता है, अपराधी के चाहने पर भी अवधि के पूर्ण हए बिना वह मुक्त नहीं हो सकता। वैसे ही आयुष्कर्म के कारण जीव देह से मुक्त नहीं हो सकता ।१४७ १४३. यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा ।
-प्राचार्य पूज्यपाद १४४. स्थानाङ्ग २।४।१०५ टीका
(ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३६ १४५. (क) उदहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ । मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ।।
--उत्तरा ३३।२१ (ख) सप्ततिर्मोहनीयस्य ।
-तत्त्वार्थ । ६ यद्भाभावाभावयोर्जीवितमरणं तदायुः ॥२॥ यस्य भावात् आत्मनः जीवितं भवति यस्य चालावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते ।
-तत्त्वार्थ र.जवातिक-८।१०१२ (ख) प्रज्ञापना २३।१ १४७. पडपडिहारासि मज्जहडचित्तकुलालभंडगारीणं ।
जह एएसि भावा कम्माणि वि जाग तह भावा ॥ -नवतत्व साहित्य संग्रह । अव० वृत्यादिसमेतं, नवत्त्व प्रकरणम् ७४
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