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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
आयु कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है ।१५१ भगवती में उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग उपरान्त तेतीस सागरोपम वर्ष कही है ।१५२ नाम कर्म :
जिस कर्म से जीव गति यादि पर्यायों के अनुभव करने के लिए बाध्य हो वह नाम कर्म है । १५3 अथवा जिस कर्म से जीव में गति
आदि के भेद उत्पन्न हो, देहादि की भिन्नता का कारण हो अथवा जिससे गत्यन्तर जैसे परिणमन हों, वह नाम कर्म है।५४
प्रस्तुत कर्म की तुलना चित्रकार से की गई है। जिस प्रकार एक चतुर चित्रकार अपनी कल्पना से मानव, पशु, पक्षी, आदि नाना प्रकार के चित्र चित्रित करता है, ऐसे ही नामकर्म भी नारक, तिर्यञ्च, मानव और देवों के शरीर आदि की रचना करता है। इस प्रकार यह कर्म शरीर, अङ्गोपाङ्ग, इन्द्रिय, आकृति, शरीरगठन, यश, अपयश आदि का निर्माता है । १५५
१५१. तेत्तीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
--उत्तराध्ययन ३३।२२ १५२. आउगं..."उक्को, तेत्तीसं सायरोवमाणि पुव्वकोडितिभागब्भहियाणि ।
-भगवती ६३ १५३. नामयति-गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवयणति जीवमिति नाम ।
प्रज्ञापना२३।१।२८८, टीका (ख) विचित्रपर्यायर्नमयति-परिणमयति यज्जीवं तन्नाम ।
-ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका १५४. गदिआदि जीवभेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च । गदियंतरपरिणमनं करेदि णामं अणेयविहं ।।
-गोम्मटसार-कर्मकांड १२ ५५५. जह चित्तयरो निउणो अणेगरूवाइ कुणइ रूवाई।
सोहणमसोहणाई, चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ।।
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