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स्याद्वाद
और अपने दृष्टिकोण के अनुसार उनका निराकरण भी करता है ।. जैन दार्शनिक साहित्य में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । इस प्रतिपादन क्रम को अगर कोई मूल तत्त्व का विकासक्रम समझ बैठे तो यह उसकी भूल ही कही जाएगी ।
अमरीकी विद्वान प्राचि० जे० बह्र इसी भूल के शिकार हुए हैं । उन्होंने स्याद्वाद के निरूपणक्रम को स्याद्वाद का विकासक्रम समझ लिया है। एक भूल अनेक भूलों की सृष्टि कर देती है । जब उन्होंने स्याद्वाद के क्रमविकास की भ्रान्त कल्पना की तो दूसरी भूल यह हो गई कि वे सप्तभंगी को बौद्धों के चतुष्कोटिनिषेध का अनुकरण अथवा विकास समझने लगे, यद्यपि उन दोनों में बहुत अधिक अन्तर है ।
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सर्वप्रथम हमें इतिहास द्वारा निर्णीत इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि जैनधर्म, बौद्धधर्म से बहुत प्राचीन है । 23 महात्मा बुद्ध से पहले तेईस तीर्थकर हो चुके थे । तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ उनसे लगभग २५० वर्ष पूर्व हुए थे । उन्होंने स्याद्वाद सिद्धान्त का निरूपण किया था । संजय वेलट्ठपुत्त, जो बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने स्याद्वाद को ठीक तरह न समझ कर संशयवाद की प्ररूपणा की थी । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्याद्वाद सिद्धान्त का बुद्ध से पहले ही अस्तित्व था । ऐसी स्थिति में यह समझना कि सप्तभंगी सिद्धान्त बौद्धों के चतुष्कोटिप्रतिषेध का विकसित रूपा - न्तर है, सर्वथा निराधार है । चतुष्कोटिप्रतिषेध का सिद्धान्त तो बुद्ध के भी बाद में प्रचलित हुआ है। इसके अतिरिक्त सप्तभंगी और चतुष्कोटिप्रतिषेध के आशय में भी बहुत अन्तर है । बौद्धों का चतुष्कोटि-प्रतिषेध यों है
१ - वस्तु है, ऐसा नहीं है ।
२ - वस्तु नहीं है, ऐसा भी नहीं है ।
३- वस्तु है और नहीं है, ऐसा भी नहीं है ।
२६. देखिए, डा० हर्मन जैकोबी द्वारा लिखित जैन सूत्राज़ की भूमिका ।
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