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________________ १५८ धर्म और दर्शन रौद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल थे दो ध्यान प्रशस्त हैं ।६३ अप्रशस्त ध्यान को त्यागकर प्रशस्तध्यान में प्रात्मा को स्थिर करना वस्तुतः ध्यान है।६४ इन चारों ध्यानों के भी अनेक भेद प्रभेद हैं।६५ (१२) व्युत्सर्ग-शरीर, सहयोग, उपकरण और खान-पान का त्याग करना और कषाय, संसार और कर्म का त्याग करना व्युत्सर्ग है।६६ व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का है-(१) द्रव्य व्युत्मर्ग (२) और भाव व्युत्सर्ग ।६० द्रव्य व्युत्सर्ग,---(१) शरीर व्युत्सर्ग,६८ (२) गण-व्युत्सर्ग, (३) उपधि व्युत्सर्ग (४) और अाहारव्युत्सर्ग रूप में चार प्रका है। भावव्युत्सर्ग-(१) कषायव्युत्सर्गः, (२) संसार व्युत्सर्ग ( ३र कर्मव्युत्सर्ग रूप में तीन प्रकार का है । इस प्रकार तप के दो प्रकार बताये हैं। बाह्य तप में सरीरसम्बन्धी सभी साधना-नियम समा जाते हैं, और पाभ्यन्तर तप में ६४. (ख) आर्तरौद्रधर्म शुक्लानि। -तत्त्वार्थः ६।२६ ६३. परे मोक्षहेतू । -तत्त्वार्थ० ६।३० अरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई झाणं तं तु बुहा' वर ।। - उत्तरा० ३०१३५ स्थानाङ्ग ४।१।३०८ ६६. औपपातिक, तपोऽधिकार । ६७. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । -तत्त्वार्थ ० ६।२६ ६८. सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सगो, छट्ठो सो परिकित्तिओ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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