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________________ श्रमण संस्कृति और तप १५६ हृदय को विशुद्ध बनाने वाले प्राचारों का समावेश हो जाता है। अनशन और ध्यान दोनों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत क्रम में किया गया है। इस क्रम में न केवल कष्ट सहन का विधान है और न कष्ट से पालयन कर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न ही है । साधक के लिए सहिष्णुता और एकाग्रता दोनों अपेक्षित हैं। दोनों का सुमेल इस साधना क्रम में है। पर अन्य परम्पराओं में ऐसा सुनियोजित क्रम नहीं है । अन्य परम्पराओं ने जहाँ केवल काय-क्लेश और देह-दमन को महत्त्व दिया है, वहाँ जैन परम्परा ने कायक्लेश और देहदमन के साथ ही प्राभ्यन्तर तप को महत्त्व दिया है । जैन संस्कृति का यह वज्र आघोष रहा है कि बाह्य तप के साथ यदि प्राभ्यन्तर तप का मेल नहीं है तो वह बाह्य तप मिथ्या है । धन्य अनगार की तरह ही ६६. दव्वे भावे अ तहा दुहा, विसग्गो चउविहो दव्वे । गणदेहोवहिभत्त, भावे कोहादि चाओ त्ति । काले गणदेहाणं, अतिरित्तासुद्धभत्तपाणाणं । कोहाइयाण सययं, कायव्वो होई चाओ त्ति ।। -दशवकालिक १-१ हारिभद्रीया वृत्ति ७०. लोकप्रतीतत्त्वात् कुतीथिकैश्च स्वाभिप्रायेणाऽऽसेव्यमानत्वात् बाह्य, तदितरच्चाऽऽभ्यन्तरमुक्तम् । -उत्तराध्ययन ३०१७ नेमिचन्द्राचार्य वृत्ति (ख) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वाद् बाह्यत्वम् ।१७ परप्रत्यक्षत्वात् १८ तीर्थ्यगृहस्थकार्यत्वाच्च ॥१९॥ अनशनादि हि तीथ्यगृहस्पैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ६।१६ राजवातिक ७१. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीजणहं अरई भयं । अहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाफलं ॥ -वशवकालिक गा० २७ ७२. अनुसरोपपातिक वर्ग ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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