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श्रमण संस्कृति और तप
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हृदय को विशुद्ध बनाने वाले प्राचारों का समावेश हो जाता है। अनशन और ध्यान दोनों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत क्रम में किया गया है। इस क्रम में न केवल कष्ट सहन का विधान है और न कष्ट से पालयन कर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न ही है । साधक के लिए सहिष्णुता और एकाग्रता दोनों अपेक्षित हैं। दोनों का सुमेल इस साधना क्रम में है। पर अन्य परम्पराओं में ऐसा सुनियोजित क्रम नहीं है । अन्य परम्पराओं ने जहाँ केवल काय-क्लेश और देह-दमन को महत्त्व दिया है, वहाँ जैन परम्परा ने कायक्लेश और देहदमन के साथ ही प्राभ्यन्तर तप को महत्त्व दिया है । जैन संस्कृति का यह वज्र आघोष रहा है कि बाह्य तप के साथ यदि प्राभ्यन्तर तप का मेल नहीं है तो वह बाह्य तप मिथ्या है । धन्य अनगार की तरह ही
६६. दव्वे भावे अ तहा दुहा, विसग्गो चउविहो दव्वे ।
गणदेहोवहिभत्त, भावे कोहादि चाओ त्ति । काले गणदेहाणं, अतिरित्तासुद्धभत्तपाणाणं । कोहाइयाण सययं, कायव्वो होई चाओ त्ति ।।
-दशवकालिक १-१ हारिभद्रीया वृत्ति ७०. लोकप्रतीतत्त्वात् कुतीथिकैश्च स्वाभिप्रायेणाऽऽसेव्यमानत्वात् बाह्य, तदितरच्चाऽऽभ्यन्तरमुक्तम् ।
-उत्तराध्ययन ३०१७ नेमिचन्द्राचार्य वृत्ति (ख) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वाद् बाह्यत्वम् ।१७
परप्रत्यक्षत्वात् १८ तीर्थ्यगृहस्थकार्यत्वाच्च ॥१९॥ अनशनादि हि तीथ्यगृहस्पैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ६।१६ राजवातिक ७१. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीजणहं अरई भयं । अहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाफलं ॥
-वशवकालिक गा० २७ ७२. अनुसरोपपातिक वर्ग ३
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